एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ
जाए
पास प्यासे के कुँआ
आता नहीं है
ये कहावत है
अमरवाणी नहीं है
और जिसके पास देने को न
कुछ भी
एक
भी ऎसा यहाँ प्राणी नहीं
है
कर स्वयं हर गीत
का शृंगार
जाने देवता को कौन-
सा भा जाए
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ़
दर्पण
किन्तु
आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है
सभी कुछ
पर समस्याएँ
कभी रूठी नहीं हैं
हर छलकते अश्रु को कर
प्यार
जाने आत्मा को कौन
सा नहला जाए
व्यर्थ है करना ख़ुशामद
रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते
सफ़र में
वह न ईश्वर के उठाए
भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाए
अपनी ही नज़र में
हर लहर का कर प्रणय
स्वीकार
जाने कौन तट के पास
पहुँचा जाए
»
वक्त क़ी सीधी-
सी पहचान
मैं बतलाऊँ वक्त क़ी,
सीधी-सी पहचान।
जितना मुश्क़िल आज है, कल
उतना आसान॥
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